दिव्यश्चानन्दजश्चैव द्विधा ख्यातोऽद्भुतो रसः |

रससिद्धांत में शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक और वीभत्स रस के बाद, जिस रस का वर्णन किया है वह अद्भुत रस है। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र, अद्भुत रस के दो भेदों की व्याख्या करता है। अद्भुत रस का पहला भेद दिव्य अद्भुत कहलाता है, जिसमें दिव्यता प्रकट होती है। इसका दूसरा  रूप है आनन्दज अद्भुत, जिसमें इस भेद से रस के निष्पत्ति मे आनंद की अनुभूति होती है। अमरकोष में विस्मयोद्भुतमाश्चर्य चित्रम् इस प्रकार अद्भुत रस की व्याख्या की गई है। जैसा कि अमरकोश में वर्णित है, विस्मय यह अद्भुत रस का स्थायीभाव है।

विस्मयस्य सम्यक् समृद्धिः अद्भुतः|
सर्वेन्द्रियाणां ताटस्थ्यं वा | – रसतरंगिणी

उपरोक्त श्लोक का तात्पर्य यह है कि, विस्मय की सम्यक, समृद्धि या सभी इंद्रियों के लिए तटस्थता या स्तंभ की प्राप्ति को अद्भुत रस कहा जाता है। सभी इंद्रियां अद्भुत रस में अभिभावित हो जाती हैं और थोड़ी देर के लिए निचेष्ट हो जाती हैं। जिज्ञासावश अद्भुत रस की प्रवृत्ति दिखाई देती है। रूप परिवर्तन जैसी कला वास्तव में माया है। असंभव की संभव अभिव्यक्ति विस्मय पैदा करती है और वह अद्भुत रस निष्पत्ति का कारण है।

पार्वती और परमेश्वर का अर्धनारीश्वर स्वरूप ऐसाही विस्मय पैदा करता है और दिव्य अद्भुत रस प्रकट करता है।

अर्धनारीश्वर

वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ।

कविकुलगुरु कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य रघुवंश के आरंभ में अर्धनारीश्वर स्वरूप को नमन किया है। उपरोक्त श्लोक में कालिदास कहते हैं कि, मैं विश्व के माता पिता, देवी पार्वती-परमेश्वर को नमन करता हूं, जो एक-दूसरे से इस तरह जुड़े हुए हैं जिस प्रकार शब्द और उनके अर्थ आपस में जुड़े हुए होते है। 

Ardhanarishvara, National Museum Delhi.

अर्धनारीश्वर का यह रूप विस्मय निर्मित करता है। पुरुष-प्रकृति तत्त्व में निहित सामरस्य भाव का अर्थबोध, इस शिल्प से अधिक प्रकट और स्पष्ट होता है। शिवशक्ति के नित्य समरसता को ही अद्वैत माना जाता है। इन दोनों के सामरस्य का आरंभ उमामहेश्वर आलिंगन प्रतिमा की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। इस दिव्य दम्पति का साकार स्वरूप शृङ्गार रसपूर्ण होता है। इस दिव्य, मुग्ध अनुराग के माध्यम से शिव स्वरूप के आत्म-साक्षात्कार से यह ऐक्य प्रस्थापित होता है। प्रकृति स्वरूप पार्वती की दिव्यता को महसूस करके, शिव-पार्वती अर्धनारीश्वर के रूप में पूरी सृष्टि के लिए दिव्य अद्भुत रस प्रकट करते हैं।

शिव पार्वती के शृङ्गार रस का परमोच्च बिन्दु अर्धनारीश्वर स्वरूप है । अद्वैतवादी शैवागम में शक्ति अर्थात माया का त्याग नहीं है, बल्कि उन्हे ब्रह्मशक्ति का संग्रह माना गया है। माया तत्त्व प्रकृति स्वरुपा है और महेश्वर इसके धारणकर्ता । स्वात्मपरिचय से जो जिज्ञासा उत्पन्न होती है, वह विस्मय उत्पन्न करती है। बस यह तत्त्व शिल्पकारने अर्धनारीश्वर प्रतिमाओं मे साकार किया है । 

इसी वजह से अर्धनारीश्वर का रूप शिल्पकारों तथा कलाकारों की जिज्ञासा जागृत करनेवाला एक आकर्षक विषय रहा होगा।

अंशुमदभेदागम, कामिकागम, सुप्रभेदागम, कारणागम इन आगम ग्रंथो में और शिल्परत्न, बृहत्संहिता, विष्णुधर्मोत्तर पुराण आदि ग्रंथो में अर्धनारीश्वर विग्रह का स्वरूप वर्णित किया हैं। वास्तविक शरीरशास्त्र अनुसार आधा पुरुष देह और आधा स्त्री देह ऐसी कल्पना करे तो दोनोकी विभिन्न प्रकृति होती है ।  दोनों की देहस्थिति, पुरुष देह की मजबुती और स्त्री देह में होने वाली प्राकृतिक सुडौलता इन सभी को ध्यान मे रखकर शिल्पकार उनका कौशल साकार करते है । देह का दाहिना आधा भाग पुरुष का है, जिसका अर्थ है शिव और वामांग स्त्री का है, अर्थात पार्वती । शिव का मस्तक जटामुकुट से मंडित है और उस पर अर्धचंद्र शोभा बढ़ा रहा है। तो पार्वती की केशसज्ज शिवजी से भिन्न, अत्यंत मनोहारी प्रकार से धम्मिल केशरचना की गई हैं। शिव त्रिनेत्रधारी है और पार्वती के लालट पर आधा लंबवत तिलक है। दोनों के देह पर सजे आभूषण और वस्त्र भी अलग-अलग दिखाए गए है। शिव के कानों में सर्प कुंडल है, जबकि पार्वती के बाएं कान में वृत्त या गोलाकार कुंडल है। बाजूओं में केयूर, हाथ पर कंकण और पैर में वलय है । किन्तु पार्वती के आभूषण अधिक अनुपम और नक्काशीदार है। व्याघ्रचर्म शिव का कटिवस्त्र है जबकि पार्वती का कटिवस्त्र पैरों तक लंबा, सुंदर कढ़ाई वाला मुलायम, महीन रेशमी उज्ज्वल वस्त्र का दिखाया गया है। अर्धनारीश्वर प्रतिमा में दो, तीन या चार हाथ दिखाते जाते है। चतुर्भुज प्रतिमा में शिव के दो हातों में त्रिशूल, परशु, अंकुश, अक्षमाला, टंक, अभय मुद्रा शिल्पित की जाती है। पार्वती के बाएं हाथ में नीलोत्पल, दर्पण, तोता या कभी-कभी पार्वती का हाथ कट्यावलंबित स्थिति में उनकी कटी से नीचे जंघापर टिकाया हुवा होता है। शिव जी नंदी के सिर पर हाथ रखकर और अपने देहभार को थोड़ा झुका के खड़े है। इससे पार्वती के शरीर को स्वयं ही सुडौल अवस्था प्राप्त हो जाती है।

ई.स. ६ठी-७वीं शताब्दी में घरापुरी की गुफाओं में शिव-पार्वती के अर्धनिश्वर के भव्य स्वरूप का अंकन है। अर्धनिश्वर की यह अद्भुत रसपूर्ण अभिव्यक्ति को देखने के लिए  समस्त देवी-देवताओं, ऋषि-मुनियों, ब्रह्मदेव, भगवान विष्णु, इंद्र, समस्त गण, गंधर्व अवतरित हुवे है ऐसा उत्कीर्ण किया गया है। शिल्पकारों ने यह दिव्य अद्भुत रस से व्याप्त अनुभूति को शिल्पकला के माध्यम से चिरायु किया है। अद्भुत रस का यह पुनराविष्कार अर्धनिश्वर जैसी प्रतिमाओं से वारंवार होता रहता है।   

अगले भाग में हम देवी शिल्प में अभिव्यक्त शांत रस का परामर्श लेकर नवरस और देवी शिल्पे की इस आलेख शृंखला को विराम देंगे ।

One thought on “अद्भुत रस – अर्धनारीश्वर : नवरस और देवी शिल्प”

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