नवरस और देवी शिल्प की आलेख शृंखला मे सातवा रस, वीभत्स रस आज के भाग का विषय है । अबतक देवी के विभिन्न विग्रह और उनसे प्रतीत होनेवाले नवरस जैसे शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर और भयानक रस, इनका परामर्श पिछले कुछ भागों में लिया गया है । इस भाग में हम वीभत्स रस, उसका स्वरूप, विभाव आदि की जानकारी लेंगे । 

देवी सौम्या हो या उग्रा उनका विग्रह तो सर्वदा मंगलकारी ही होता है, किन्तु शिल्पकला मे अभिव्यक्त होनेवाले भाव समझने के लिए और वीभत्स की रस दृष्टिसे होनेवाली परिभाषा समझने के लिए वीभत्स रस का चिंतन यह कर रही हूँ । भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में वीभत्स रस के दो भेद बताए गए हैं। वीभत्स रस क्षोभण अर्थात शुद्ध और उद्वेगी अर्थात अशुद्ध इन दोन रूपों में व्यक्त होता है। जुगुप्सा यह वीभत्स रस का स्थायीभाव है। किसी अप्रिय, अनिष्ट या अवांछनीय पदार्थ या अवस्था का अवलोकन करना यह वीभत्स रस की उत्पत्ति का कारण है।

चित्रसूत्र वीभत्स रस के लिए जो परिभाषा देता है, वह उपरोक्त विवरण से साधर्म्य रखता है –

श्मशान गर्हिता घात करणं स्थानदारूणम् |
यच्चित्रं चित्तविक्षेप्तृ तद्वीभत्सरसोद्भवम् ||

इसका अर्थ यह है की, स्मशान, घृणित, घात करनेवाला या विकट अवस्था का चित्रण वीभत्स रस की निष्पत्ति करता है।

देवी-देवताओं के संदर्भ मे कुछ प्रतिमाए ऐसी भी हैं जो वीभत्स रस दर्शाती हैं। इसमें अलक्ष्मी, चामुंडा और उनके विभिन्न विग्रह, योगिनी ऐसी प्रतिमाए वीभत्स रस प्रतिबिंबित करती है। 

चामुण्डा

Goddess Chamunda, Odisha State Museum 8th century AD.

देवी शिल्प में सबसे महत्वपूर्ण प्रतिमा है चामुण्डा। शाक्त संप्रदाय के एक बहुत ही उग्र, संहारक और भयानक स्वरूप मे माँ चामुण्डा अग्रक्रम से होती है। देवी-महात्मा में काली जब शत्रुसेना पर क्रोधसे से टूट पड़ती हैं तो उनका रूप और भी भयावह हो जाता है। चण्ड और मुण्ड ये दो महादैत्य देवी काली के हातो मारे जाते है, तब वे चामुण्डा यह नाम धारण करती है, ऐसा कथाभाग पुराणों में मिलता है। माँ चामुण्डा का सप्तमातृका संघ मे अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।  इन सप्तमाताओं में सबसे श्रेष्ठ माता चामुण्डा है।  देवी चामुण्डा का प्रथम उल्लेख मत्स्यपुराण के अंधकासुर वध प्रसंग में मिलता है। अंधकासुर का वध करने हेतु स्वयं भगवान शिव से मातृकाओं का उद्भव बताया गया है ।  उनमे  से एक है चामुण्डा। इसके अतिरिक्त अग्निपुराण, मार्कंडेय पुराण, देवी-महात्मा में देवी चामुण्डा का स्वरूप, उद्भव और उनके पराक्रम का विवेचन किया गया है।

विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा ।।
द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ।
अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा ।।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा । 

उपरोक्त श्लोक का तात्पर्य यह है की, देवी चामुण्डा भयानक और कृष्ण मुखवाली है, शत्रुओं  के विनाश के लिए जिसने हात में तलवार और पाश धारण किया है। विचित्र खट्वांगं धारण करनेवाली, जिसने अपने गले में नरमुंडमाला हार स्वरूप पहनी है । बाघ या तेंदुए के चर्म का वस्त्र बनाकर अपने कमर के चारों ओर से लपेटा है। शरीर पर मांस पूरी तरह से सूख गया है, यह तक की हर एक हड्डी स्पष्ट दिखाई दे रही है। विशाल मुंह और उसमें से निकली जिव्हा के कारन माँ चामुण्डा और भयानक और उग्र  दिखाई दे रही है ।  उनकी आँखें धँसी हुई तो हैं ही परंतु क्रोध से  लाल हो रही हैं।

चामुण्डा के स्वरूप की और एक कल्पना विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अगले श्लोक से प्राप्त होती है –

लम्बोदरी तू कर्तव्या रक्ताम्बरपयोधरा |
शूलहस्ता महाभागा भूजप्रहरणा तथा || 
बृहद्रथा च कर्तव्या बहुबहुस्तथैव सा |
चामुण्डा कथिता सैव सर्वसत्ववशङ्करी ||
तथैवान्त्रमुखी शुष्का शुष्का कार्या विशेषतः |
बहुबाहूयुता देवी भुजंगैःपरिवेष्टिता ||
कपालमालिनी भीमा तथा खट्वांगंधारिणी ||

उपरोक्त श्लोक का अर्थ यह है की, मनुष्य और सभी जानवरों को नियंत्रित करने की शक्ति चामुण्डा में है। जिसका पेट बड़ा होने के कारण लटक रहा है ।  जिसके स्तन लाल कपड़े से ढके हों। यह एक हाथ में शूल है, जिसकी भुजाएँ धारदार हथियार की तरह हैं। यह एक बड़े रथ (?) में बैठी और कई हाथ ऐसे रूप में शिल्पित की जानी चाहिए। आंत भक्षण करनेवाली दिखानी चाहिए, हालांकि फिर भी देवी का देह कमजोर, क्षीण या शुष्क होना चाहिए। उनके गले में मुण्डमाला और गले के  चारों ओर सर्प अंकित करना चाहिए। खट्वांगं धारण करनेवाली और बहुत भयावह ऐसा स्वरूप देवी शिल्प का होना चाहिए, ऐसे निर्देश दिए है ।

भारत के उत्तर में, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में, चामुण्डा को ऊर्ध्वकेशी, लम्बस्तनी, हड्डी के ढ़ाचे जैसा शरीर, मुण्डमाला धारन करनेवाली, सर्प, बिच्छू जैसे अत्यंत जहरीले साक्षात मृत्यु के प्रतीक उनके साथ चिह्नित किये जाते है। शिल्पकला में देवी चामुण्डा स्थानक, त्रिभंग अवस्थामें नृत्यरत या ललितासन में आसनस्थ शिल्पित की जाती है। चार, आठ, बारह या सोलह भुजाओं वाली उनकी प्रतिमाए सम्पूर्ण भारत में कई जगहों पर देखी जा सकती हैं। उनके हाथ में त्रिशूल, ढाल, खड्ग, धनुष, पाश, अंकुश, बाण, कुल्हाड़ी, दर्पण, घंटा, वज्र, दंड, वरद, मुंड, कपाल, खेटक जैसे विभिन्न हथियार होते हैं। कभी कभी देवी के पार्श्व दो भुजाओं में हाथी की खाल या सर्प लिए हुए अंकित किया गया हैं।

चामुण्डा का आसान प्रेत है । वह त्रिनेत्रा है और आँखें अंदर धँसी हुई है। देवी के अगल-बगल अमंगल, अप्रिय प्राणियोंका वास और संचार है, जिनमे उल्लु, जंबुक, सांप, बिच्छु है। देवी के गण, साधक और सेवक श्मशानवासी है।

देवी चामुण्डा की प्रतिमा का अवलोकन करते समय एक बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि, भले ही उनकी प्रतिमा का बाह्यरंग वीभत्स रस से परिपूर्ण है, किन्तु वह देवी माता स्वरूपिणी हैं।  जो भक्त पर अपना कृपाछत्र धरनेवाली हैं। उनके उग्र, भयानक स्वरूप का भय अनैतिक कार्य करने वालों के मन में सदा बना रहना चाहिए इसलिए इस प्रकार से चामुण्डा की अभिव्यक्ति की गई है । जैसे सृष्टि के नियमों के अनुसार विनाश के बाद सृजन का चक्र शुरू होता है, वैसे ही चामुण्डा के इस रूप को समझना आवश्यक है। उनका यह भयावह स्वरूप दुष्ट ताकतों को पूरी तरह से नष्ट करके पुनर्जागरण की संवाही हो इसलिए मध्ययुग के लगभग सभी मंदिरों पर देवी चामुण्डा की स्वतंत्र प्रतिमाए उत्कीर्ण कारवाई गई है । इनके विग्रह में स्थापित शुद्ध वीभत्स रस, बुराई को समाप्त कर मंगलता प्रदान करने वाला माना जाता है । समयचक्र पर देवी चामुण्डा का आधिपत्य है, यह सत्य स्वीकार करनेवाले शरणार्थी भक्त को चामुण्डा अभय प्रदान करती है।

नवरस और देवी शिल्प इस शृंखला के अगले भाग में, देवी शिल्प से अभिव्यक्त होनेवाला अद्भुत रस की चर्चा करेंगे ।

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