
नवरस और देवी शिल्प इस शृंखला में अबतक उमामहेश्वर आलिंगन प्रतिमा में अंकुरित होनेवाले रसराज शृङ्गार की जानकारी ली। कांची के कैलासनाथ मंदिर के उत्कीर्ण सप्तमातृका पट में निर्मित हास्य रस की झलक देखी। देवी त्रिपुरा के स्वरूप मे करुण रस का अनुभव किया। क्रोधदग्ध देवी काली के स्वरूप से अभिव्यक्त रौद्र रस के भयवाह भाव को समझा। माँ दुर्गा के महिषासुरमर्दिनी स्वरूप में वीररस से उत्पन्न दिव्य सात्विक तेज की ऊर्जा देखी। इस आलेख में, शिल्पकला के माध्यम से देवी के एक ऐसे स्वरूप का अवलोकन करने जा रहे है, जो अधिक भय निर्मित करनेवाला है। प्रथम रससिद्धांत की दृष्टिसे भयानक रस का परामर्श लेते है ।
रससिद्धांत में छठा रस भयानक रस है, जिसका स्थायी भाव भय है। इसलिए कांपना, मुंह सूखना, चिंता, चक्कर आना, भाग जाना यह सभी विभाव का प्रदर्शन इस रस से उत्पन्न होने से अनुभव होता है।
गात्रमुखदृष्टिभेदैरुरुस्तम्भाभिवीक्षणोद्वेगैः
यह श्लोक का तात्पर्य यह है की, चर्या और नेत्र के भाव, रंग और स्थिति में बदलाव डर का संकेत है। अभिविक्षण अर्थात भय के कारण आँखों की गति होती है। उद्विग्न मन से व्याकुलता प्राप्त होती है। दैन्य, सम्भ्रम, चिन्ता, सम्मोह, क्लेश इस भयानक रस के संचारी भाव कहे गए हैं।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में चित्रसूत्र ने निम्नलिखित श्लोक में भयानक रस का वर्णन किया है –
दुष्टदुर्दशनोच्छुष्कहिंस्त्रव्यापादकादि यत् |
तत्स्याभ्दयानकरसे प्रयोगे चित्रकर्मणः ||
उपरोक्त श्लोक का अर्थ यह है की, चित्र में भयानक रस की निर्मिती में दुष्ट या बुरे दिखनेवाले, क्षय अथवा लुप्त होनेवाले या प्राणघातक आदि कर्मो से उत्पन्न होनेवाले भय का चित्रण करना चाहिए ।
करालवदना काली
देवी शिल्प में देवी के काली विग्रह से भय उत्पन्न होता है यह तो हमने रौद्र रस को देखते हुए जान लिया है। तो भयानक रस की अभिव्यक्ति के लिए काली का ही एक भिन्न स्वरूप यह मैंने लिया है, जो भयानक रस को प्रतिबिंबित करता है। ई.सा. 7वीं-8वीं शताब्दी की यह प्रतिमा है, जो दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित की गई है। यह प्रतिमा मध्यप्रदेश से मिली है।
चतुर्भुजा करालवदना देवी समपाद स्थानक अवस्था में मतलब अपने दोनों पैरों पर समान भार के साथ खड़ी है। देवी की काया स्थूल दिखाई पड़ती है। चेहरे पर उग्रभाव हैं। उनके विशाल नेत्र बंद है, अत्यधिक मोटे होंठ और बड़ी नाक ने देवी की चर्या अधिक भयानक स्पष्ट हो रही है। इस शिल्प मे देवी की केशसज्ज पर नजर डालें तो, जटाए बांधकर उनपर खोपड़ियों से सजाया गया है। सर्प, देवी के गले में माला की तरह घूम रहा है। देवीने दाहिने हाथ से सांप का फन पकड़ा हुआ है। आगे की दोनों भुजाओं में नरमुंड पकड़े है। पार्श्व दाहिने हाथ में नाग और बाएं हाथ में कमंडलू है।
इन दोनों हाथों के बीच में त्रिशूल और बायीं ओर दण्ड है। देवी के पैरों के समीप, जम्बूक अपने दो पैरों पर खड़े होकर नरमुंड का रक्त प्राशन करते दिखाई दे रहे है। देवी के पैरों के दोनों ओर बाघ सदृश्य जीव अंकित किए है। यह प्रतिमा देवी के भयप्रद स्वरूप का दर्शन करती है।
नवरस और देवी शिल्प इस शृंखला के अगले भाग में, देवी शिल्प से अभिव्यक्त होनेवाले वीभत्स रस का परामर्श लेंगे।
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