
बलपराक्रमशक्तीप्रतापप्रभावादीभिर्विभावैरुत्पद्यते
बल, पराक्रम, शक्ती, प्रताप और प्रभाव इन विभावों से उत्पन्न होनेवाला रस वीर रस कहलाता है। उत्साह यह वीर रस का स्थायीभाव है, इसलिए वीर रस को सात्विकता प्राप्त होती है। वीरता के रस में दया-वीर, दान-वीर, धर्म-वीर और युद्ध-वीर जैसे अनेक भाव है। इसके अलावा असुर वीर और लोभ वीर की अवधारणाएं भी वीर रस से जुड़ी हुई है।
देवी प्रतिमाओं में महिषासुरमर्दिनी के शिल्प से रणरागिनी का स्वरूप प्रत्यक्ष होता है। नवरस और देवी शिल्प इस शृंखला में अबतक प्रस्तुत शृंगार, हास्य, करुण और रौद्र रस की अपेक्षा देवी का वीररस से पूर्ण महिषासुरमर्दिनी स्वरूप अधिक लोकप्रिय रहा है । भारतीय परंपर में प्राचीन काल से प्राचीन सिक्के, देवालय, या स्वतंत्र प्रतिमाओं के रूप में महिषासुरमर्दिनी को देखा जाता सकता है।
महिषासुरमर्दिनी
देवी दुर्गा का उद्भव महिषासुर नामक असुर को नष्ट करने के लिए हुआ था। देवी दुर्गा की प्रतिमाओं का विचार करे तो ईसा पहली शताब्दी से माँ दुर्गा महिषासुरमर्दिनी स्वरूप की प्रतिमाए मिलती हैं। कुषाण काल की टेराकोटा पट्टिकाओं पर दुर्गा के रूप को मूर्त स्वरूप दिया है। गुप्त काल में भी, वह जन- जन के बीच लोकप्रिय और पूजनीय देवता थीं और आज भी है । इसके अलावा तंत्र साहित्य, आगम और शिल्पग्रंथ भी दुर्गा के महिषासुरमर्दिनी स्वरूप का वर्णन अधिक विस्तारपूर्वक करते हैं। शिल्परत्न में देवी कात्यायनी ही महिषासुरमर्दिनी है, ऐसा उल्लेख मिलता है।
महिषासुरमर्दिनी जैसी वीरांगना का उद्भव और प्राकृतिक स्वभाव समझने के लिए मार्कंडेयपुराण, वामन पुराण, वराह पुराण, शिवपुराण, स्कंदपुराण, देवी भागवत, कालिकापुराण जैसे विभिन्न पुराणोंसे संदर्भ मिलते है । एक रंभ नामक दैत्य था, जिसका पुत्र महिषासुर था। तपोबल के जोर पर महिषासुर को ब्रह्मदेव से वरदान मिलता है कि, वह किसी पुरुष देवता से नहीं मरेगा। तो महिषासुर देवताओं को हराकर स्वर्ग पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की चेष्टा करता है। इंद्र और अन्य देवता ब्रह्मदेव के पास जाकर उनका हाल बताते हैं। ब्रह्मदेव के कथनानुसार सभी देवगण भगवान विष्णु और भगवान शिव को आत्मसमर्पण करते है, और घटित वर्णन करते हैं। महिषासुर के अहंकार पर क्रोधित होकर भगवान विष्णु के मुख से तेजाग्नी बाहर निकलती है । उसी प्रकार दिव्य तेज भगवान शिव के मुख से निकलता है। सभी देवताओं से जो तेज प्रकट होता है उस दिव्य तेजन्श से स्त्री का जन्म होता है, वह देवी कात्यायनी है ।
प्रत्येक देवता के तेज से देवी के सर्वांग का निर्माण होकर साक्षात असुरमर्दिनी प्रकट होती है। भगवान शिव के तेज से देवी के मुख का निर्मित होता है। यम का तेज उनके लंबे सीधे काले बाल बनते है। विष्णु के तेज से अठारह भुजाएँ बनी हैं। चंद्रमा की तेज से देवी के स्तनमण्डल बने हैं। देवी का कटीप्रदेश देवेंद्र की तेज से और उनकी जंघाए और पाद भगवान वरुण की तेज से बनी हैं। नितंब भूमिदेवी के तेज से, पैर और टखनों का निर्माण ब्रह्मदेव के तेज से, हाथों की उंगलियों का निर्माण सूर्य देव के तेज से और पैर की उंगलिया वसु देवता के तेज से बनी है। नासिका का निर्माण यक्षराज कुबेर की तेज से हुआ है। उसकी दंतपंक्ति दक्ष प्रजापति के तेज से और उसके कर्ण वायुदेव के तेज से बने हैं। अग्नि भगवान की तेज से तीसरा नेत्र देवी को प्राप्त हुआ है। उनकी भौहें देवी संध्या की तेज से बनी हैं और उनके होंठ भगवान अरुण की तेज का प्रतीक हैं।
समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्
सभी देवताओं के तेज से जन्मी माँ दुर्गा का स्वरूप अत्यंत मोहक, निश्चल है। महिषासुर के वध के लिए सभी देवता देवी दुर्गा को अपने अस्त्र-शस्त्र अर्पण करते हैं।
देवी को भगवान शिव से त्रिशूल और विष्णु से चक्र प्राप्त होता है। वरुण देव से शंख और पाश, अग्नि से शक्ति, यम से कालदंड। वायु देव धनुष प्रदान करते है जबकि सूर्य देव सबसे चमकीला तीर प्रदान करते है। इंद्र अपना वज्र और ऐरावत के गले के घंटा देवी को प्रदान करते है । कुबेर देव से एक शक्तिशाली गदा और उनका दिव्य मधुपात्र देते है। ब्रह्मदेव से कमंडलू , काल से अत्यंत तेज खड्ग और सुरक्षा के लिए ढाल प्रदान करते है। विश्वकर्मा देव दुर्गा देवी को तेजस्वी परशु और विभिन्न प्रकार के हथियार, अभेद्य कवच प्रदान करते हैं। समुद्रदेव देवी को उज्ज्वल पुष्पहार से सुशोभित करते है। दिव्या चूड़ामणि, जटामुकुट की शोभा बढ़ाने के लिए अर्धचंद्र, कानों में दो कुंडल, बाजुओं में केयूर, पैरों में लुढ़कती पायल, गले में कंठाहार, हाथों में दिव्य कंगन, उंगलियों में विभिन्न रत्नों वाले अंगूठीया, ये सभी आभूषण दे कर देवी और भी तेजस्वी स्वरूप धारण कर लेती है । हिमालय पर्वत देवी को वाहन के रूप मे शेर प्रदान करता है।
अनंत सूर्य का तेज जिस में केंद्रित हुआ है ऐसी देवी दुर्गा की आवेशपूर्ण गर्जना से समस्त आकाश, धरती कांप उठते है । उस दिव्य गर्जना की गूँज असुर सेना के मन मे कंप निर्माण करने वाली होती है। असुर सेना से लगातार देवी से युद्ध करते हुए उनके चर्यापर परिश्रम और थकान की जरा सा भी लकीर तक नहीं थी ।
जिस प्रकार कथा मे देवी दुर्गा का वर्णन मिलता है, ठीक उसी प्रकारकी अभिव्यक्ति हमे शिल्पकला मे दिखाई देती है। महिषासुरमर्दिनी की यह मूर्ति पाल शैली में बनी 12वीं शताब्दी की है। अत्यंत मोहक देह है लेकिन देवी के देहभाव से आवेग और उत्साह प्रतिबिंबित हो रहा है। त्रिभंग अवस्था में उनकी प्रतिमा होती है । देवी का दाहिना पैर शेर पर और अपने बाए पैर से वह महिष को भूमि की ओर दबा रही है । इसलिए, बायां पैर थोड़ा ऊपर उठा हुआ है, जिसको प्रतिमाशास्त्र की भाषा मे अलिढ अवस्था कहते है । देवी की सोलह भुजाओं में दानव की छाती घुसाय हुवा त्रिशूल, चक्र, अंकुश, वज्र, हथौड़ा, शक्ति, खड्ग और बाण हैं । दाहिने हाथ में ढाल, धनुष, घंटा, दर्पण, सूची मुद्रा, ध्वज और पाश हैं, जबकि एक हाथ से दानव के बाल पकड़े हैं। कमल पर खड़ी वीर रस के तेज से परिपूर्ण यह देवी विग्रह है।
नवरस और देवी शिल्प इस शृंखला के अगले भाग में, देवी शिल्प से अभिव्यक्त होनेवाले भयानक रस का परामर्श लेंगे।