
नवरस और देवी शिल्प में शृंखला के पिछले भाग में उमामहेश्वर आलिंगन प्रतिमा और उनकी शिल्पाभिव्यक्ति से उमड़ने वाले शृङ्गाररस के बारे मे देखा, इस भाग में हम देवी शिल्प और उससे जुड़े हास्य रस का परामर्श लेंगे ।
रससिद्धांत में शृङ्गार रस से ही उत्पन्न होने वाला रस है, हास्य रस। हास यह इसका स्थायी भाव है । हास्य रस विभिन्न कारणवश उत्पन्न होता है, जैसे वेशभूषा, केशविन्यास, आभूषणों की विकृति, या जो जैसा होना चाहियें उसके विपरीत हो, तो स्वाभाविक हास्य निर्मिती होती है। इसलिए हास्य रस के विभाव को सामान्य माना जाता है। आचार्य श्रीशंकुक के अनुसार हास्य को दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। एक अपने आप पर हंसना – जिसे आत्मस्थ या स्वसमुत्त हास्य कहा जाता है। दूसरा प्रकार कुछ कार्यों के सहकार्य से दूसरों को हंसाना है – जिसे परस्थ या परसमुत्थ हास्य कहा जाता है। इस आलेखद्वरा देवी प्रतिमायों परसमुत्थ हास्य द्वारा उत्पन्न हास्य रस की अभिव्यक्ति देखेंगे। नाट्यशास्त्र के अनुसार हास्य का विश्लेषण निम्नलिखित श्लोकों में किया गया है-
विपरीतालङ्गरैर्विकृताचाराभिधानवेषैश्च |
विकृतैङ्गविकारैर्हसतीति रसः स्मृतो हास्यः||
अपेक्षित आभूषणों के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न अलंकार, विचित्र पद्धतिसे धारण करना, विकृत व्यवहार,अंगविक्षेप आदि से हास्य रस उत्पन्न होता हैं।
शिल्पशास्त्र में हास्य रस की अभिव्यक्ति भी बहुत प्रासंगिक है। चित्रसूत्र के अनुसार हास्य को निम्न श्लोक में व्यक्त किया गया है –
यत्कुब्जवामनप्रायमीषद्विकटदर्शनम् |
वृथा हि हस्तसंकोचं तस्याध्दास्यकरं रसे ||
इसका श्लोक तात्पर्य यह है की, हास्य रस निर्मिती के लिए कुब्ज, वामन या कुछ विचित्र देहबोली प्रदर्शित करनी चाहिए । कारण के अभाव में व्यर्थही वारंवार मुट्ठी फेरना भी हंसी का कारण बनता है।
भारतीय देवालय वास्तु और उनकी बाहरी दीवारों पर भगवान शिव के गण शिल्पित किए जाते है । यह गण वामन और विचित्र चेहरे के होते है। शिवजी के साथ संगीत पर नृत्य करते गण, दर्शक के मुखपर हास्य भाव लाते है । कभी वे अपने अंगविक्षेपद्वारा कुछ ऊटपटाँग चेष्टाएं करते दिखाए जाते है । गण का स्वभाव और व्यक्तिचित्र हास्य रस से परिपूर्ण होता है | परंतु जब देवी प्रतिमाओं की बात आती है, तो हास्य रस का निर्माण दुर्लभ होता है । लेकिन शिल्पकारों की कल्पकता और उसके परिणामस्वरूप निर्मित होनेवाला हास्य रस अत्यंत दुर्लभ है। कांची, कैलासनाथ मंदिर में सप्तमातृका शिल्पपट शिल्पकारों की इसी कल्पकता की झलकी दिखाता है।
सप्तमातृका, कैलासनाथ मंदिर
कांची में कैलासनाथ मंदिर का निर्माण राजा नरसिंह वर्मन द्वितीय, यानी राजसिंह पल्लव ने करवाया था। इस मंदिर पर ७वीं-८वीं शताब्दी ईसवी की सप्तमातृका का सुंदर शिल्पपट है। ईसा पहली शताब्दी से सप्तमातृकाओं की मूर्तियां पूरे भारत में पाई गई है। मध्ययुग से सप्तमातृका शिल्प अधिक से अधिक पाए जाने लगे। सप्तमातृका, उनका स्वरूप और उनके उद्भव की कथा मत्स्यपुराण, देवीपुराण, स्कंदपुराण, मार्कंडेय पुराण और वराह पुराण आदि से मिलती है। साथ ही, सुप्रभेदागम, अंशुमतभेदागम, पूर्वकारणागम जैसे आगम और प्रपंचसार, योगिनीहृदय, स्वच्छंदतंत्र जैसे तंत्र साहित्य से मिलती है। मत्स्यपुराण के अनुसार, इन मातृकाओं की उत्पत्ति अंधकासुर वध के समय साक्षात शिवजी से हुई थी। लेकिन वामन पुराण के अनुसार, इन मातृकाओं की उत्पत्ति देवी चंडीका के शरीर से हुई और वे फिर से देवि में ही विलीन हो गईं ऐसा उल्लेख मिलता है ।
सप्तमाताओं का मूल स्वरूप और शिल्पी के द्वारा दिखाए गए रूप के बीच का अंतर ही इस शिल्प से हास्य उत्पन्न करता है। यदि हम इन माताओं के मूल स्वरूप को देखें, तो वे ऐसी शक्तियाँ है जो असुरों का खात्मा करने के लिए युद्धभूमि पर उतरी हैं। हर एक देवता सें एक शक्ति का उद्भव बताया गया है । ब्रह्मदेव से ब्राह्मी, महेश्वर से माहेश्वरी, कार्तिकेय से कौमारी, भगवान विष्णु से वैष्णवी, वराह से वाराही, इंद्र से इंद्राणी और देवी कात्यायनी से चामुंडा की उत्पत्ति हुई है। ईशानशिव गुरुदेव पद्धति में सप्तमातृकों को योगरूप में असनस्थ अर्थात अक्षमाला धारण कर योगसाधना में लिन बैठे शिल्पित करने का निर्देश दिया गया है।
कैलासनाथ मंदिर के सप्तमातृका पट्ट में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमरी, वैष्णवी, वरही, इंद्राणी और चामुंडा उत्कीर्ण हैं। उनके सिर पर छत्र है। यदि आप इस शिल्पपट को बाईं ओर से देखना शुरू करते है, तो सबसे पहली चीज जो आप देखते है देवी ब्राह्मी। ब्राह्मी देवी ने अपना एक पैर बगल में बैठी माहेश्वरी देवी के गोद में बड़े आराम से रखा है, ऐसा शिल्पियों ने शिल्पित किया है । माहेश्वरी और कौमारी देवी वैष्णवी की ओर देख रही है। वाराही और इंद्राणी भी वैष्णवी को देख रही है, जैसे वैष्णवी कुछ बता रही हो । कौमारी और वाराही भी अपना एक पैर एक-दूसरे पर टिका कर बैठी है। बीच में बैठी वैष्णवी देवी के पीछे उत्कीर्ण प्रयोग चक्र और शंख देखने लायक है। चक्र और शंख दोनों हवा में है, शायद देवी वैष्णवी कुछ करतब दिखा रही हो। इन मातृकाओंका बैठने के ढंग दर्शकों का ध्यान आसानी से आकर्षित कर लेता है। सप्तमातृकाओं का प्राकृत स्वभाव उग्र और सज्जता दर्शानेवाला दिखाने के विपरीत माताओंका सहज भाव देख हास्य की भावना स्वाभाविक उत्पन्न होती है।
नवरस और देवी शिल्प इस शृंखला के अगले भाग में, देवी शिल्प से अभिव्यक्त होनेवाला करुण रस की चर्चा करेंगे ।
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