प्राकृतिक शक्ति और सौंदर्य का मनोहारी संगम देवी पार्वती है और शिव सत्य है। देवी के विभिन्न रूपों में पार्वती का स्वरूप सुंदरता, मधुरता और अनुराग से परिपूर्ण है। यही कारण रहा है कि उमामहेश्वर यह दम्पति प्राचीन भारतीय काव्य, नाट्य, नृत्य, चित्रकर्म और शिल्पकला परंपरा का एक बेहद पसंदीदा विषय बन गए । प्राचीन भारतीय काव्य परंपरा मे, कविकुलगुरु कालिदासद्वारा रचित कुमारसंभव यह महाकाव्य पार्वती-परमेश्वर को समर्पित है, जिसमे इस दिव्य दम्पति का शृंगार कविने शब्दबद्ध किया है ।

नवरस और देवी शिल्पोंकी शृंखला का प्रारंभ रसराज श्रृंगार रस से किया है । रससिद्धांत में प्रथम स्थान भी श्रृंगार रस को प्रदान किया है । मनुष्य के अंतरंग में उत्पन्न होनेवाली अनुराग की भवनाओंका स्वामी होने के कारण शृंगार रस को ‘रसराज’ या ‘रसपति’ कहा जाता है । चित्रसूत्र के निम्नोक्त श्लोक से श्रृंगार रस का वर्णन मिलता है –

‘तत्र यत्कान्तिलावण्य’ लेखामाधुर्यसुन्दरम् | 
विदग्धवेशाभरणं शृंङ्गारे तु रसे भवेत् | 43.2 

इसका तात्पर्य यह है की, नजाकत, माधुर्य और सुंदरता का दर्शन जहा हो और वस्त्र-अलंकार उज्ज्वल हो तो वहा श्रृंगार रस निर्माण होता है । भरतमुनी ने अपने नाट्यशास्त्र में श्रृंगार रस का निर्देश करने के लिए इसी प्रकार के संकेत दिए है।    

यत्किञ्चिल्लोके शुचि मेध्यमुज्ज्वलं दर्शनीयं  

अर्थात संसार में जो कुछ भी शुभ, पवित्र और उज्ज्वल या दीप्तिमान और दृश्यमान है, वही रूप श्रृंगार रसप्रधान है। श्रृंगार रस का स्थायीभाव रति है । रति का अर्थ है प्रेम और प्रेम से जुड़ी अनंग-क्रीड़ा, अनुगमन, अभिगम, सहवास आदि का प्रत्येक अभिव्यक्त भाव रति कहलाता है । उमामहेश्वर आलिंगन शिल्पों में अलौकिक और दिव्य शृंगार रस शिल्पीद्वारा साकार किया गया है । 

उमामहेश्वर आलिंगन प्रतिमा 

भारतवर्ष में उमामहेश्वर आलिंगन प्रतिमा लगभग सभी जगह पाई जाती है । सर्वप्रथम प्रतिमाशास्त्र के अनुसार उमामहेश्वर आलिंगन प्रतिमा का लक्षण देख लेते है । यह युगुल प्रतिमा होने के कारण इस विग्रह मे भगवान महेश्वर और उमा आलिंगन दिए खड़े है ।  इस प्रकार की  प्रतिमाओं में उमामहेश्वर यह दम्पति कभी स्थानक अवस्था में खड़े दिखाई देते है, तो कभी आसनस्थ अवस्था में एकसाथ विराजमान बैठे दिखाते है। इन प्रतिमाओं का यह विशेष कहा जा सकता है की यह प्रतिमा निर्मिती में उपयोग की जाने वाली विभिन्न शारीरिक विधियों को इन प्रतिमा के माध्यम में देखा जा सकता है। 

स्थानक अवस्था में खड़ी उमामहेश्वर प्रतिमा में त्रिभंग अवस्था से दिव्य अनुपमता का उद्भव होता है। यह दम्पति सुंदर वस्त्रालंकारोसे सुशोभित होते हैं। उज्ज्वल वस्त्र और सुंदर आभूषण परिधान कर इन दम्पति की काया और भी शोभायमान प्रतीत होती है ।  पार्वती की विलोभनीय केशसज्जा और भगवान शिव का मस्तक जटामुकुट से मंडित होता है। उमामहेश्वर आलिंगन मूर्ती में  भगवान का स्वरूप चंद्रशेखर शिव की तरह उज्जवल और तेजस्वी होता हैं। शिव चतुर्भुज और उमा द्विभुजा होती है । उमा का दाहिना हाथ शिव के कंधे पर स्थित होता है, और दूसरे हाथ में नीलोत्पल या पुष्प धारण किया होता है। कुछ प्रतिमाओं में उमा के दूसरे हाथ में दर्पण भी होता है। 

रूपमंडन में आलिंगन प्रतिमा का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है। 

उमामहेश्वरं वक्ष्ये उमया सह शङ्कर | 
मातुलिङ्गं त्रिशुलश्च धरते दक्षिणे करे ||
आलिङ्गीतो वामहस्तें नागेन्द्रं द्वितीये करे | 
हरस्कन्द उमाहस्ते दर्पणो द्वितीये करे ||  (रूपमंडन – 28)

पत्नी उमा शंकर के साथ हैं। जिसके दाहिने हाथ में मातुलिङ्ग और त्रिशूल है। बाए हाथ से उमा को आलिंगन दिया है और दूसरे बाए हाथ में नागेंद्र है। वही उमा का एक हाथ शिव के कंधे पर है और दूसरे हाथ में दर्पण है।

सामान्यतः महेश्वर के पिछेके दो हाथों में त्रिशूल और सर्प होता है।  जबकि कभी कभी डमरू या खप्पर पकड़े हुए दिखाई देते हैं। अगली दो भुजाओं के बीच दाहिने हाथ में कभी फूल, कभी मातुलिंग या कभी-कभी अक्षमाला होती है। शिव का बायां हाथ कभी उमा को आलिंगन देता हुवा उमा के कटिपर होता है,  तो कभी उमा के कंधे पर स्थित होता है । 

उमामहेश्वर की आसनस्थ प्रतिमा में यह दम्पति अत्यंत विलासपूर्ण अवस्था मे विराजमान होते है। आसनस्थ स्थिति में भद्रपीठ या नंदी की पीठ पर दोनों विराजमान होते है। पार्वती परमेश्वर की बायीं जंघा पर विराजमान होती है। इन आलिंगन प्रतिमाओं में शिव-पार्वती सह नंदी, गण, कार्तिकेय, गणेश, भृंगी, गंधर्व और अप्सरा को भी शिल्पित किया जाता है।

Uma-maheshwara, Delhi National Museum. Pala style, Bihar 11th century AD.

इस आलिंगन प्रतिमा में, उमा और महेश्वर एक-दूसरे की आंखों में प्रेमभाव से देख रहे हैं। जैसे दोनों  आपने आसपास की चेतन दुनिया को पूरी तरह से भूल गए हों। इस नयनक्रीडा से पार्वती लज्जित हो अपना मुख फेर लेती है । सलज्ज पार्वती के नेत्रों से छलकते आनंद का अनुभव करने के लिए भगवान अपने हाथ की अंगुलियों से उमा के मुख को हल्के से उठा रहे हैं । शृंगार रसपूर्ण अनुराग की दिव्य अनुभूति का दर्शन इस शिल्प के माध्यम से होता है । चेहरे पर हल्की मुस्कान, स्वानन्द भाव, आँखों का रोख, हाथों का स्पर्श, देह की भाषा यह सभी शृंगार रस के विभाव इन प्रतिमाओं में वारंवार अभिव्यक्त होते रहते हैं। इस अलौकिक प्रेम को शिल्पी ने शिल्पबद्ध कर  जगन्माता पार्वती और पिता परमेश्वर के इस दैवी शृंगार से उत्पन्न अलौकिक अनुराग, एक मंत्रमुग्ध प्रतीक के रूप में सादृश्य किया है ।

यह उमामहेश्वर आलिंगन प्रतिमा भारत में मथुरा, नाचना, महाराष्ट्र में लातूर-निलंगा, नांदेड़ में कंधार, घा रपुरी, एलोरा, कर्नाटक में पट्टाडकल में पाई  जाती है |भारत वर्ष में उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम यहां तक ​​कि भारत के बाहर भी बहुत जगह उमामहेश्वर की यह आलिंगन प्रतिमाएं पाई जाती हैं।