महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः |
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी ||

देवी स्वयं विभिन्न तत्त्वबोध करानेवाली तत्त्वरूपा है | कभी वह आपने प्राकृतिक स्वरूप से मोहनेवाली प्रकृतिरुपा होती है, तो कभी वह असुरों का विनाश करनेवाली दुर्गा होती है | महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहा जैसे विभिन्न रूपों मे देवी की कल्पना की गई है | भारतीय शिल्पकला में देवी के सौम्य, रौद्र, उग्र, भयानक ऐसे सभी स्वरूप मे अभिव्यक्ति की गई है |नवरस और देवी शिल्प यह आलेख शृंखला देवी के नवरस से परिपूर्ण नौ स्वरूपोंका जागरण है |

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की चतुःसूत्री मे भारतीय संस्कृति पिरोई गई है। भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही दार्शनिक, आध्यात्मिक और कलात्मक मूल्यों की समृद्ध विरासत रही है। प्राचीन भारतीय कला एक सौंदर्य सूत्ररूप है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चारो बिंदुओं एकसाथ बांधता है। कला एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसके माध्यम से कलाकार अपने ज्ञान, चिंतन और कौशल के आधार पर अवधारणाओं को महसूस करता है। कलाकार के मन-मस्तिष्क मे उठनेवाले भावनात्मक और रचनात्मक विचार तरंगही उसके कलाभिव्यक्ति मे प्रस्तुत होते है ।

तत्कालीन समाज की रूपकात्मक अभिव्यक्ति कला के माध्यम से प्रवाहित होती रहती है। भारतीय कला में न केवल व्यक्ति के देहभाव को, बल्कि उसके जीवन मूल्यों को भी शिल्पों के माध्यमसे परिभाषित किया है। कला के माध्यम से अमूर्त अवधारणाओं को मूर्त रूप देते हुए, कलाकार ने अपनी कलाकृति पर दार्शनिक चिंतन, सौंदर्यशास्त्र और कलात्मक अभिव्यक्ति इन तीन तत्वों के संतुलित संस्कार करने का प्रयास किया है, जो आज उपलब्ध कलाकृतियों के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है।

आनंद कुमारस्वामी के अनुसार, भारतीय परंपरा में दार्शनिकों द्वारा कला की तुलना में सौंदर्य सिद्धांतों का अधिक व्यापक आदान-प्रदान किया है। उनके अनुसार सौन्दर्य या रुचि एक अवस्था है। कला समीक्षक यह तय कर सकते हैं, कि किस प्रकार की कला सुंदर या रसपूर्ण है। इस सुंदरता का अनुभव, कलाकार वह कला प्रत्यक्ष साकार करते हुए अनुभूत करता है। जब कलाकृति अपना पूर्ण स्वरूप धारण कर प्रस्तुत की जाती है, ततपश्चात रसिक दुबारा उस कलाभिव्यक्ति की सुंदरता का अनुभव करता है।

वात्स्यायन विरचित ग्रंथ ‘कामसूत्र’ के भाष्य में यशोधर ने चित्रकर्म के छह अंगोका कथन किया है।

रूपभेदः प्रमाणानि भावलावण्ययोजनम।
सादृश्यं वर्णिकाभंग इति चित्रं षडंगकम्।।

रूपभेद का अर्थ है आकार और उसके विभिन्न भेद, प्रमाण का अर्थ है आनुपातिक नाप, लालित्य का अर्थ है सौंदर्य, भावयोजन का अर्थ है रसाभिव्यक्ती, सदृश्य का अर्थ है मूल तत्त्व से समानता और वर्णिकाभंग का अर्थ है रंग योजना या वर्णिका उपयोग विधि। इसलिए, लावण्य निर्मिती के लिए सौंदर्य और रस निर्मिती के लिए भाव यह दोनों ही चित्रकला और शिल्पकला में महत्त्वपूर्ण अंग माने गए है।

७ वीं शताब्दी में संकलित विष्णुधर्मोत्तरपुराण यह ग्रंथ कला की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धी है। इसका अधिकांश भाग कला के शास्त्रोक्त विवेचन को समर्पित है। विष्णुधर्मोत्तारपुराण से छंद, काव्य, नृत्य-संगीत, वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला इन सभी की विस्तारपूर्वक चर्चा संकलित की गई है। इस ग्रंथद्वारा रस और भाव का वर्णन और उनकी निर्मिती की प्रक्रिया के निर्देश श्लोकबद्ध स्वरूप मे पाएँ जाते है।   

शृङ्गारहास्यकरुणवीररौद्रभयानकाः |
वीभत्साद्भूतशान्ताश्च नव चित्र रसाः स्मृताः || – चित्रसूत्र ४३.१

आज से आरंभ हो रहे शरदीय नवरात्रि के पावन अवसर पर मै इस शब्दश्रृंखला को माध्यम बना रही हूँ । भारतीय शिल्पकारों ने जो देवी स्वरूप का चिंतन किया और अपने कला के माध्यम से प्रस्तुत किया, उन्ही स्वरूप मे अंतस्थ स्थित नवरस का अवलोकन मै प्रस्तुत करने जा रही हूँ । अगले भाग में, उमामहेश्वर शिल्प से अभिव्यक्त होनेवाले शृङ्गार रस का परमर्श लेने वाले है ।

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